Who is at risk from the constitution?
by Tanvi Katyal Molitics - Media of Politicsकिसे है संविधान से ख़तरा?
चुने हुए प्रतिनिधियों को होटल की चाहरदीवारी में क़ैद करके रखे जाने का ट्रेंड लगभग स्थापित हो गया है। सरकार बनाने से पूर्व खरीद-फ़रोख़्त को चाणक्यगिरी कहना नयी बुद्धिमत्ता हो गई है। संस्थानों का सरकार के हित में प्रयोग सामान्य समझा जाने लगा है। गवर्नर और प्रेसीडेंट की छवि पूरी तरह से कठपुतली वाली हो गई है।
दलित घोड़ी चढ़े - तो पिटाई। महिलाएँ अपनी मर्ज़ी से कपड़े पहनें - तो बवाल। विद्यार्थी शिक्षा के लिए आवाज़ उठाएँ - तो हो हल्ला। एक्टिविस्ट्स जन सरोकार के मुद्दों पर सरकार की आलोचना करें - तो शोर-शराबा। ये माहौल संविधान दिवस को अधिक प्रासंगिक बना रहा है।
संविधान का अनुच्छेद 15 कहता है कि धर्म, नस्ल, जाति, लिंग और जन्मस्थान के आधार पर किसी के साथ कोई भेदभाव नहीं किया जाना चाहिए। लेकिन वर्तमान राजनीति इन आधारों के साथ-साथ और बारीक आधार निकाल रही है विभाजन के लिए-बँटवारे के लिए।
बँटवारा अपने चरम पर
पूर्वांचली, मराठा, गुजराती - जन्मस्थान के आधार पर इंसानों का वर्गीकरण आज़ादी के बाद अपने चरम पर है। हिंदुओं और मुस्लिमों का विभाजन बहुत पहले हो चुका था। ब्राह्मण अब दत्तात्रेय, गौड़ आदि-आदि में बँट गए, शूद्र, ज्यादा शूद्र और कम शूद्र हो गए हैं, ओबीसी वर्ग क्रीमी और नॉन क्रीमी लेयर में बँटे हुए हैं।
लोकतंत्र के नाम पर लोगों को बनाया जा रहा है गुलाम
इन सब बँटवारों को वोटबैंक नाम दिया जा रहा है। संविधान के दायरे में रहकर संविधान के तमाम अनुच्छेदों की धज्जियाँ उड़ाई जा रही हैं। लोकतंत्र के नाम पर लोगों को गुलाम बनाया जा रहा है।एक-दूसरे के नाम पर वोट हासिल करने वाली पार्टियाँ एक-दूसरे से लड़-भिड़ कर अलग हो जाती हैं। एक दूसरे के खिलाफ चुनाव लड़ने वाले लोग कुर्सी रानी के लिए हाथ मिलाने लगते हैं। इस दुश्मनी और दोस्ती में ठगे जा रहे हैं वोटर्स और अपमानित हो रही है संविधान की मूल भावना।
द टेलीग्राफ ने इस भावना के अपमान की कहानी अपने एक हेडलाइन We The Idiots के द्वारा बयान किया। संविधान का कवच होने के बावजूद लोग मूर्ख बनाए जा रहे हैं - सरेआम।
लोग हाशिए पर
संविधान सभा द्वारा अंगीकृत किया गया संविधान लोगों को व्यवस्था का सिरमौर बनाने की भावना रखता है। लेकिन वर्तमान परिदृश्य में लोगों के द्वारा चुने हुए प्रतिनिधियों ने लोगों को इस व्यवस्था के हाशिए पर बिठा दाया है। हाशिए के अंदर नए हाशिए बनाए जा रहे हैं। लोगों के अंदर बँटवारे के नवीन बीज तलाशे जा रहे हैं।
एक तस्वीर तेज़ी से विकसित हो रही है - संविधान विरोधी ताकत बनाम संविधान की। लेकिन ये तस्वीर दिखे नहीं - इसके लिए एक संस्थान को दूसरे के खिलाफ खड़ा किया जा रहा है। आभासी तस्वीर खींची जा रही है पुलिस बनाम किसान, वकील बनाम पुलिस, या शिक्षक बनाम फोर्सेज़ आदि की।
संविधान एक सीमा तय करता है। सीमाएं स्वच्छंदता को रोकती हैं। पशु स्वच्छंदता चाहते हैं। राजनीति पाश्विक हो गई है। स्वाभाविक है आपके संवैधानिक हितों की रक्षा आपके तथाकथित प्रतिनिधि कभी नहीं करेंगे। आपकी जिम्मेदारी बस आपकी ही है।
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Created on Nov 27th 2019 01:08. Viewed 298 times.