ईश्वर, पुनर्जन्म और रायल्टी
ईश्वर, पुनर्जन्म और रायल्टी
ईश्वर,
विभिन्न मतों या विचारों का अन्त और मूल ”एक का विचार“ है। इस ”एक का विचार“ से हम सभी और ऊपर नहीं जा सकते। इस एक को वेदान्त में ”अद्वैत“ या ”अव्यक्त एकेश्वर“ कहा गया और उसी का प्रत्येक में प्रकाश अर्थात् ”बहुरुप में प्रकाशित एक सत्ता“ आत्मसात् किया गया, जो अदृश्य आध्यात्म विज्ञान ही नहीं वर्तमान के दृश्य पदार्थ विज्ञान के नवीनतम अविष्कार के फलस्वरुप सिद्ध हो चुका है। इसी एक अदृश्य सत्य को शिव या आत्मा या ईश्वर या ब्रह्म या भगवान कहा गया तथा उसके अदृश्य व्यक्तिगत प्रमाणित अदृश्य गुण और दृश्य सार्वजनिक प्रमाणित सिद्धान्त को दृश्य गुण कहा गया। जिस प्रकार सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की ”बहुरुप में प्रकाशित एक सत्ता है।“ उसी प्रकार सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में उसका अदृश्य और दृश्य गुण का एक ही सिद्धान्त व्याप्त है। सिद्ध अर्थात् प्रमाणित विषयों और नियमों का अन्त ही सिद्धान्त है। जब अदृश्य आध्यात्म विज्ञान की ओर से सिद्ध विषयों और नियमों को व्यक्त करते हुए एक की ओर जाते हैं, तब वह अदृश्य व्यक्तिगत प्रमाणित सिद्धान्त तथा जब दृश्य पदार्थ विज्ञान की ओर से सिद्ध विषयों और नियमों को व्यक्त करते हुये उस एक की ओर जाते हैं, तब वह दृश्य सार्वजनिक या ब्रह्माण्डीय प्रमाणित सिद्धान्त कहलाता है। आध्यात्म की ओर से उस एक तक पहुँचने के बाद सिर्फ ज्ञान और वाणी रुप ही व्यक्त हो पाता है। और वह ”सभी एक ही हैं“, ”बहुरुप में प्रकाशित एक सत्ता“, ”समस्त विश्व एक परिवार है“, ”विश्व-बन्धुत्व“, ”बसुधैव-कुटुम्बकम्“, ”बहुजन हिताय बहुजन सुखाय“, ”एक आत्मा के ही तुम प्रकाश हो“, ”आपस में प्रेम से रहो“, ”एकात्म मानवतावाद“ इत्यादि सत्य शब्द व्यक्त होते हैं, लेकिन यह व्यवहारिक नहीं हो पाते क्योंकि ये ज्ञान का एक फल है, ज्ञान का बीज नहीं जिससे प्रत्येक व्यक्ति इसके महत्व को समझ सके। परिणामस्वरुप ये व्यावहारिक नहीं बन पाते। इसे व्यावहारिकता में लाने के लिए ज्ञान का बीज अर्थात् दृश्य ज्ञान और कर्म ज्ञान अर्थात् सार्वजनिक प्रमाणित एकात्म कर्म-सिद्धान्त की आवश्यकता पड़ती है। ये सार्वजनिक प्रमाणित सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त ही ईश्वर है। सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में व्याप्त है। इसको आविष्कृत करने वाले ऋषि या अवतार हैं और इसके द्वारा सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को नियमित करने वाला ब्राह्मण है। इसी सार्वजनिक या ब्रह्माण्डीय प्रमाणित अदृश्य सिद्धान्त को दृश्य करने के लिए समय-समय पर उपयुक्त वातावरण मिलने पर यह सिद्धान्त, सिद्धान्तानुसार ही मानव शरीर धारण, जीवन, कर्म, ज्ञान, ध्यान और सिद्धान्त को व्यक्त करता है जब तक की वह सिद्धान्त स्वयं को पूर्ण रुप में व्यक्त न कर ले। ऐसा क्यों है? ऐसा इसलिए है कि जिस प्रकार साधारण मानव अपनी इच्छा के लिए कर्म कर व्यक्त होता है उसी प्रकार सिद्धान्त स्वयं की इच्छा से स्वयं को व्यक्त करने के लिए कर्म कर व्यक्त होता है। वह शरीर जिसमें ईश्वर या सिद्धान्त का अवतरण होता है उसे ईश्वर का सगुण-साकार-दृश्य रुप कहा जाता है। परन्तु किसी भी स्थिति में शरीर ईश्वर नहीं होेता है क्योंकि प्रत्येक मानव शरीर सिद्धान्तानुसार ही व्यक्त होता है जो सिद्धान्त के ज्ञान से युक्त हो जाते है वे आत्म प्रकाश में होकर सफल जीवन व्यतीत करते हैं जो अज्ञान में रहते हैं वे अपने संकीर्ण ज्ञान व विचार के कारण सीमित चक्र में उलझकर रह जाते हैं। यहीं ज्ञान, कर्म ज्ञान या सत्य-सिद्धान्त की उपयोगिता है।
ईश्वर के सम्बन्ध में स्वामी विवेकानन्द जी की आध्यात्मिक सत्य दृष्टि-
1. सत् का कारण असत् कभी नहीं हो सकता। शून्य से किसी वस्तु का उद्भव नहीः कार्य-कारणवाद सर्वशक्तिमान है और ऐसा कोई देश-काल ज्ञात नहीं, जब इसका अस्तित्व नहीं था। यह सिद्धान्त भी उतना ही प्राचीन है, जितनी आर्य जाति। इस जाति के मन्त्र द्रष्टा कवियों ने उसका गौरव गान गया है। इसके दार्शनिकों ने उसको सूत्रबद्ध किया और उसकी वह आधारशिला बनायी, जिस पर आज का भी हिन्दू अपने जीवन का समग्र योजना स्थिर करता है।
2. सत्य के दो अंग है। पहला जो साधारण मानवों को पांचेन्द्रियग्राह्य एवम् उसमें उपस्थापित अनुमान द्वारा गृहीत है और दूसरा-जिसका इन्द्रियातीत सूक्ष्म योगज शक्ति के द्वारा ग्रहण होता है। प्रथम उपाय के द्वारा संकलित ज्ञान को ”विज्ञान“ कहते है, तथा द्वितीय प्रकार के संकलित ज्ञान को ”वेद“ संज्ञा दी है। वेद नामक अनादि अनन्त अलौकिक ज्ञानराशि सदा विद्यमान है। स्वंय सृष्टिकत्र्ता उसकी सहायता से इस जगत के सृष्टि-स्थिति-प्रलय कार्य सम्पन्न कर रहे हैं। जिन पुरूषों में उस इन्द्रियातीत शक्ति का आविर्भाव है, उन्हें ऋषि कहते है और उस शक्ति के द्वारा जिस अलौकिक सत्य की खोज उन्होंने उपलब्धि की है, उसे ”वेद“ कहते हैं। इस ऋषित्व तथा वेद दृष्टत्व को प्राप्त करना ही यथार्थ धर्मानुभूति है। साधक के जीवन में जब तक उसका उन्मेष नहीं होता तब तक ”धर्म“ केवल कहने भर की बात है एवम् समझना चाहिए कि उसने धर्मराज्य के प्रथम सोपान पर भी पैर नहीं रखा है। समस्त देश-काल-पात्र को व्याप्त कर वेद का शासन है अर्थात वेद का प्रभाव किसी देश, काल या पात्र विशेष द्वारा सीमित नहीं हैं। सार्वजनिन धर्म का व्याख्याता एक मात्र ”वेद“ ही है।
3. हमारे शास्त्रों में परमात्मा के दो रूप कहे गये हैं- सगुण और निर्गुण। सगुण ईश्वर के अर्थ से वे सर्वव्यापी है। संसार की सृष्टि, स्थिति और प्रलय के कत्र्ता हैं। संसार के अनादि जनक तथा जननी हैं उनके साथ हमारा नित्य भेद है। मुक्ति का अर्थ - उनके समीप्य और सालोक्य की प्राप्ति है। सगुण ब्रह्म के ये सब विशेषण निर्गुण ब्रह्म के सम्बन्ध में अनावश्यक और अयौक्तिक है इसलिए त्याज्य कर दिये गये। वह निर्गुण और सर्वव्यापी पुरूष ज्ञानवान नहीं कहा जा सकता क्योंकि ज्ञान मन का धर्म है। इस निर्गुण पुरूष के साथ हमारा क्या सम्बन्ध है? सम्बन्ध यह है कि हम उससे अभिन्न हैं। वह और हम एक हैं। हर एक मनुष्य उसी निर्गुण पुरूष का- जो सब प्राणियों का मूल कारण है- अलग-अलग प्रकाश है। जब हम इस अनन्त और निर्गुण पुरूष से अपने को अलग सोचते हैं तभी हमारे दुःख की उत्पत्ति होती है और इस अनिर्वचनीय निर्गुण सत्ता के साथ अभेद ज्ञान ही मुक्ति है। संक्षेपतः हम अपने शास्त्रों में ईश्वर के इन्हीं दोनों ”भावों“ का उल्लेख देखते हैं। यहाॅ यह कहना आवश्यक है कि निर्गुण ब्रह्मवाद ही सब प्रकार के नीति विज्ञानोें की नींव है। 4. जिस प्रकार मानवी शरीर एक व्यक्ति है और उसका प्रत्येक सूक्ष्म भाग जिसे हम ”कोश“ कहते हैं एक अंश है। उसी प्रकार सारे व्यक्तियों का समष्टि ईश्वर है, यद्यपि वह स्वयं भी एक व्यक्ति है। समष्टि ही ईश्वर है, व्यष्टि या अंश जीव है। इसलिए ईश्वर का अस्तित्व जीवों के अस्तित्व पर निर्भर है जैसे कि शरीर का उसके सूक्ष्म भाग पर और सूक्ष्म भाग का शरीर पर। इस प्रकार जीव और ईश्वर परस्परावलम्बी हैं। जब तक एक का अस्तित्व है तब तक दूसरे का भी रहेगा। और हमारी इस पृथ्वी को छोड़कर अन्य सब उँचे लोकों में शुभ की मात्रा अशुभ से अधिक होती है। इसलिए वह समष्टि स्वरुप ईश्वर शिव स्वरुप, सर्वशक्तिमान और सर्वज्ञ कहा जा सकता है। ये गुण प्रत्यक्ष प्रतीत होते हैं। ईश्वर से सम्बद्ध होने के कारण उन्हें प्रमाण करने के लिए तर्क की आवश्यकता नहीं होती। ब्रह्म इन दोनों से परे है और वह कोई विशिष्ट अवस्था नहीं है वह एक ऐसी वस्तु है जो अनेकों की समष्टि से नहीं बनी है। वह एक ऐसी सत्ता है जो सूक्ष्मातित-सूक्ष्म से लेकर ईश्वर तक सब में व्याप्त है और उसके बिना किसी का अस्तित्व नहीं हो सकता सभी का अस्तित्व उसी सत्ता या ब्रह्म का प्रकाश मात्र है। जब मैं सोचता हूँ ”मैं ब्रह्म हूँ“ तब मेरा यथार्थ अस्तित्व होता है ऐसा ही सबके बारे में है विश्व की प्रत्येक वस्तु स्वरुपतः वहीं सत्ता है।
5. सबका स्वामी (परमात्मा) कोई व्यक्ति विशेष नहीं हो सकता, वह तो सबकी समष्टि स्वरुप ही होगा। वैराग्यवान मनुष्य आत्मा शब्द का अर्थ व्यक्तिगत ”मैं“ न समझकर, उस सर्वव्यापी ईश्वर को समझता है जो अन्तर्यामी होकर सबमें वास कर रहा हो। वे समष्टि के रुप में सब को प्रतीत हो सकते हैं ऐसा होते हुए जब जीव और ईश्वर स्वरुपतः अभिन्न हैं, तब जीवों की सेवा और ईश्वर से प्रेम करने का अर्थ एक ही है। यहाँ एक विशेषता है। जब जीव को जीव समझकर सेवा की जाती है तब वह दया है, किन्तु प्रेम नहीं। परन्तु जब उसे आत्मा समझकर सेवा करो तब वह प्रेम कहलाता है। आत्मा ही एक मात्र प्रेम का पात्र है, यह श्रुति, स्मृति और अपरोक्षानुभूति से जाना जा सकता है। भगवान चैतन्यदेव ने इसलिए यह ठीक कहा था- ”ईश्वर से प्रेम और जीवों पर दया“ वे द्वैतवादी थे, इसलिए उनका अन्तिम निर्णय जिसमें वे जीव और ईश्वर में भेद करते हैं उनके लिए ठीक है परन्तु हम अद्वैतवादी हैं हमारे लिए जीव को परमात्मा से पृथक करना बन्धन का कारण है इसलिए मूल तत्व दया न होना चाहिए परन्तु प्रेम। हमारा धर्म करुणा नहीं वरन् सेवा धर्म है और सब में आत्मा ही को देखना है।
6. ”स ईशोऽनिर्वचनीयप्रेमस्वरुपः“- ईश्वर अनिर्वचनीय प्रेम स्वरुप है। नारद द्वारा वर्णन किया हुआ ईश्वर का यह लक्षण स्पष्ट है और सब लोगों को स्वीकार है। यह मेरे जीवन का दृढ़ विश्वास है। बहुत सेे व्यक्तियों के समूह कांे समष्टि कहते हैं और प्रत्येक व्यक्ति, व्यष्टि कहलाता है आप और मैं दोनों व्यष्टि हैं, समाज समष्टि है आप और मैं- पशु, पक्षी, कीड़ा, कीड़े से भी तुक्ष प्राणी, वृक्ष, लता, पृथ्वी, नक्षत्र और तारे यह प्रत्येक व्यष्टि है और यह विश्व समष्टि है जो कि वेदान्त में विराट, हिरण गर्भ या ईश्वर कहलाता है। और पुराणों में ब्रह्मा, विष्णु, देवी इत्यादि। व्यष्टि को व्यक्तिशः स्वतन्त्रता होती है या नहीं, और यदि होती है तोे उसका नाम क्या होना चाहिए। व्यष्टि को समष्टि के लिए अपनी इच्छा और सुख का सम्पूर्ण त्याग करना चाहिए या नहीं, वे प्रत्येक समाज के लिए चिरन्तन समस्याएँ हैं। सब स्थानों में समाज इन समस्याओं के समाधान में संलग्न रहता है। ये बड़ी-बड़ी तरंगों के समान आधुनिक पश्चिमी समाज में हलचल मचा रही हैं। जो समाज के अधिपत्य के लिए व्यक्तिगत स्वतन्त्रता का त्याग चाहता है वह सिद्धान्त समाजवाद कहलाता है और जो व्यक्ति के पक्ष का समर्थन करता है वह व्यक्तिवाद कहलाता है।
7. यन्त्र कभी नियम को उल्लंघन करने की कोई इच्छा नहीं रखता। कीड़ा नियम का विरोध करना चाहता है और नियम के विरुद्ध जाता है चाहे उस प्रयत्न में वह सिद्धि लाभ करे या असिद्धि, इसलिए वह बुद्धिमान है। जिस अंश में इच्छाशक्ति के प्रकट होने में सफलता होती है उसी अंश में सुख अधिक होता है और जीव उतना ही उँचा होता है। परमात्मा की इच्छा शक्ति पूर्ण रुप से सफल होती है इसलिए वह उच्चतम है।
8. ईश्वर उस निरपेक्ष सत्ता की उच्चतम अभिव्यक्ति है, या यों कहिए, मानव मन के लिए जहाँ तक निरपेक्ष सत्य की धारणा करना सम्भव है, बस वहीं ईश्वर है। सृष्टि अनादि है और उसी प्रकार ईश्वर भी अनादि है।
9. यह सारा झगड़ा केवल इस ”सत्य“ शब्द के उलटफेर पर आधारित है। ”सत्य“ शब्द से जितने भाव सूचित होते हैं वे समस्त भाव ”ईश्वर भाव“ में आ जाते हैं। ईश्वर उतना ही सत्य है जितनी विश्व की कोई अन्य वस्तु। और वास्तव में, ”सत्य“ शब्द यहाँ पर जिस अर्थ में प्रयुक्त हुआ है, उससे अधिक ”सत्य“ शब्द का कोई अर्थ नहीं। यहीं हमारी ईश्वर सम्बन्धी दार्शनिक धारणा है।
पुनर्जन्म
भारतीय दर्शन का मूल आधार कपिल मुनि का क्रिया-कारण सिद्धान्त जो आज तक ब्रह्माण्डीय या सार्वजनिक रूप से विवादमुक्त सार्वजनिक प्रमाणित रहा और वह कभी भी विवादग्रस्त हो भी सकता क्योंकि वर्तमान का दृश्य पदार्थ विज्ञान भी सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में झांककर यह देख चुका है कि कहीं भी कुछ भी स्थिर नहीं हैं। अर्थात वह क्रिया के अधीन है और जो कारण है वह ही स्थिर है। भारतीय चिन्तन में इसी कारण को आत्मा-शिव-ईश्वर-ब्रह्म कहा गया है। जो क्रिया में भी है लेकिन ऐसा है कि नहीं जैसा है। जैसे सूर्यास्त के उपरान्त हम यह कह सकते हैं कि सूर्य नहीं है परन्तु वह है। इसके लिए वाह्य नेत्र नहीं, अन्तः नेत्र की आवश्यकता पड़ जाती है। भारतीय चिन्तकों ने इस क्रिया को भी दो रूपों में देखा था-अदृश्य रूप एवम् दृश्य रूप। जो प्रत्येक विषय के साथ है और दोनों रूप देश-काल बद्ध सत्य है। जीव के लिए यह स्थूल शरीर और सूक्ष्म शरीर है। मानव जीव के लिए जो कारण यथार्थ आत्मा से युक्त अर्थात मन से मुक्त अर्थात इन्द्रिय इच्छाओं से मुक्त स्थूल एवम् सूक्ष्म शरीर है। वह दैवी या शिव मानव स्थूल एवम् सूक्ष्म शरीर है जिसे मानव जीवन में आध्यत्मिकता युक्त दैवी भौतिक शरीर कहते है तथा जो कारण अर्थात् आत्मा से मुक्त अर्थात् मन से बद्ध अर्थात् इन्द्रिय इच्छाओं से बद्ध स्थूल एवम् सूक्ष्म शरीर हैं, वह जीव मानव स्थूल एवम् सूक्ष्म शरीर हैं। जिसे मानव जीवन में भौतिकता युक्त असुरी शरीर कहते है। प्रत्येक सूक्ष्म शरीर अपने स्थूल शरीर त्याग के बाद सूक्ष्म शरीर अवस्था में रहता है। पुनः प्रत्येक सूक्ष्म शरीर अपने उद्देश्य अर्थात् स्थूल शरीर त्याग के अन्तिम समय में मूल इच्छा की पूर्णता हेतू उचित वातावरण के मिलने पर स्थूल शरीर ग्रहण कर पुनः अपनी चेतना शक्ति से दैवी शरीर, जीव मानव या निम्न जीव शरीर की प्राप्ति के लिए कर्म करने के लिए स्वतन्त्र हो जाता है। एक ही उद्देश्य के अनेक सूक्ष्म शरीरों का एकीकरण और एक ही सूक्ष्म शरीर का अपने उद्देश्य के प्राप्ति हेतु अनेक स्थूल शरीरों का विभिन्न समयों में धारण भी होता है। अर्थात् प्रत्येक स्थूल शरीर ही पुनर्जन्म है चाहे वह शरीर उसे पहचाने या न पहचाने। यह बिल्कुल दृश्य पदार्थ विज्ञान की क्रिया परमाणु से अणु, अणु से यौगिक पदार्थ और पुनः यौगिक पदार्थ से अणु, अणु से परमाणु के एकीकरण और विखण्डन की क्रिया के अनुसार ही होता है। जो स्थूल शरीर आत्मतत्व को व्यक्त करने के लिए क्रमशः एकात्म ज्ञान, एकात्म ज्ञान सहित एकात्म कर्म, एकात्म ज्ञान और एकात्म कर्म सहित एकात्म ध्यान की श्रंृखला में व्यक्त होता है, वह अवतारी स्थूल शरीर कहलाता है। अवतारी शरीर भी अपने अवतारी श्रंृखला का पुनर्जन्म ही होता है। पुनर्जन्म और अवतार में बस अन्तर इतना होता है कि पुनर्जन्म शरीर अपने पूर्व जीवन को सार्वजनिक रूप से सिद्ध नहीं कर पाता है क्योंकि उसके जैसे उद्देश्यों को लेकर अन्य भी पुनर्जन्म में ही होते है। जबकि अवतारी शरीर व्यक्तिगत एवम् सार्वजनिक रूप से आसानी से पुनर्जन्म सिद्ध कर देता है क्योंकि वह पूर्व के सर्वोच्च कार्य की श्रंृखला की अगली कड़ी होता है। जिसका उद्देश्य उस समय में व्यक्त अन्य पुनर्जन्म शरीरों में सिर्फ एक और अकेला होता है परिणामस्वरूप अवतारी शरीरों का सूक्ष्म शरीर भी स्पष्ट रूप से व्यक्त हो जाता है।
प्रत्येक अपूर्ण मन ही स्थूल शरीर त्याग के बाद सूक्ष्म शरीर कहलाता है। वही अपनी पूर्णता के लिए योग्य वातावरण में पुनः स्थूल शरीर धारण करता है। परन्तु ऐसा भी होता है कि अपनी पूर्णता के लिए स्थूल शरीर धारण किया हुआ सूक्ष्म शरीर परिस्थितिवश किसी दूसरे सूक्ष्म शरीर द्वारा धारण किये गये स्थूल शरीर के प्रभाव में आकर अपने उद्देश्य से अवनति या उन्नति की ओर बढ़ जाये और पुनः उसका मन नये उद्देश्य के लिए अपूर्ण रह जाये। यह नया उद्देश्य सर्वोच्चता और निम्नता अर्थात् उन्नति और अवनति अर्थात् दैवी और असुरी दोनों दिशाओं की ओर हो सकती है। यह उस प्रभावी स्थूल शरीरधारी सूक्ष्म शरीर की दिशा पर निर्भर करता है। कि उसकी पूर्णता किस ओर है।
पुनर्जन्म के सम्बन्ध में स्वामी विवेकानन्द जी की आध्यात्मिक सत्य दृष्टि-
1. यदि प्रवृत्ति बारम्बार किये हुये कर्म का परिणाम है, तो जिन प्रवृत्तियों को साथ लेकर हम जन्म धारण करते है, उनको समझने के लिए उस कारण का भी उपयोग करना चाहिए। यह तो स्पष्ट है कि वे प्रवृत्तियाँ हमें इस जन्म में प्राप्त हुई नहीं हो सकती; अतः हमें उनका मूल पिछले जन्म में ढूंढना चाहिए। अब यह भी स्पष्ट है कि हमारी प्रवृत्तियों में से कुछ तो मनुष्य के ही जान-बूझकर किये हुए प्रयत्नों के परिणाम है, और यदि यह सच है कि हम उन प्रवृत्तियों को अपने साथ लेकर जन्म लेते हैं, तब तो बिल्कुल यही सिद्ध होता है कि उनके कारण गतजन्म में जान-बूझकर किये हुये प्रयत्न ही है-अर्थात् इस वर्तमान जन्म के पूर्व हम उसी मानसिक भूमिका में रहे होंगे, जिसे हम मानव भूमिका कहते हैं।
2. पुनर्जन्मवादी लोग यह मानते हैं कि सभी अनुभव प्रवृत्तियों के रूप में अनुभव करने वाली जीवात्मा में संगृहीत रहते हैं और उसे अविनाशी जीवात्मा के पुनर्जनम द्वारा संक्रमित किये जाते हैं; भौतिकवाद वाले मस्तिष्क को सभी कर्मों के आधार होने के और बीजाणुओं के द्वारा उनके संक्रमण का सिद्धान्त मानते हैं। यदि बीजाणुओं द्वारा आनुवंशिक संक्रमण समस्या को हल करने के लिए पूर्णतः पर्याप्त है, तब तो भौतिकता ही अपरिहार्य है और आत्मा के सिद्धान्त की कोई आवश्यकता नहीं है। यदि वह पर्याप्त नहीं है, तो प्रत्येक आत्मा अपने साथ इस जन्म में अपने भूतकालिक अनुभवों को लेकर आती है, यह सिद्धान्त पूर्णतः सत्य है। पुनर्जन्म या भौतिकता-इन दो में से किसी एक को मानने के सिवा और कोई गति नहीं है। प्रश्न यह है कि हम किसे मानें?
3. ”फलानुमेयाः प्रारम्भाः संस्कराः प्राक्तना इव“ फल को देखकर ही कार्य का विचार सम्भव है। जैसे कि फल को देखकर पूर्व संस्कार का अनुमान किया जाता है।
4. शास्त्र कहते है कि कोई साधक यदि एक जीवन में सफलता प्राप्त करने में असफल होता है तो वह पुनः जन्म लेता है और अपने कार्यो को अधिक सफलता से आगे बढ़ाता है।
5. एक विशेष प्रवृत्ति वाला जीवात्मा ‘योग्य योग्येन युज्यते’ इस नियमानुसार उसी शरीर में जन्म ग्रहण करता है जो उस प्रवृत्ति के प्रकट करने के लिए सबसे उपयुक्त आधार हो। यह पूर्णतया विज्ञान संगत है, क्योंकि विज्ञान कहता है कि प्रवृत्ति या स्वभाव अभ्यास से बनता है और अभ्यास बारम्बार अनुष्ठान का फल है। इस प्रकार एक नवजात बालक की स्वाभाविक प्रवृत्तियों का कारण बताने के लिए पुनः पुनः अनुष्ठित पूर्व कर्मो को मानना आवश्यक हो जाता है और चूंकि वर्तमान जीवन में इस स्वमाव की प्राप्ति नहीं की गयी, इसलिए वह पूर्व जीवन से ही उसे प्राप्त हुआ है।
रायल्टी
मनुष्य समाज व सरकार में व्यापार के प्रणाली से रायल्टी शब्द का जन्म हुआ है जो किसी व्यक्ति/संस्था के मौलिक खोज/कृति इत्यादि के प्रति उसकी रक्षा व व्यापारीकरण के लिए उसे धनराशि के रूप में भुगतान का अधिकार देता है। रॉयल्टी संपत्ति, पेटेंट, कॉपीराइट किए गए कार्य या मताधिकार (फ्रैन्चाइजी) के कानूनी मालिक को उनके द्वारा भुगतान किया जाता है जो इसका उपयोग करना चाहते हैं। ज्यादातर मामलों में, रॉयल्टी संपत्ति के उपयोग के लिए मालिक की भरपाई करने के लिए दिया जाता हैं, जो कानूनी तौर पर बाध्यकारी हैं।
निष्कर्ष
इस संसार में प्रत्येक जीव का अपना मौलिक कर्म-इच्छा है और वह उसी अनुसार कर्म कर रहा है। ईश्वर और पुनर्जन्म के सार्वभौम सत्य-सिद्धान्त के अनुसार हम यह पाते हैं कि हम जो भी कर्म-इच्छा करते हैं वह हमें उस अनुसार जन्म-जन्मान्तर तक कर्म-इच्छा के परिणाम/फल के रूप में प्राप्त होता रहता है।
इस ब्रह्माण्ड में जिस प्रकार उत्प्रेरक सार्वभौम आत्मा की उपस्थिति में समस्त क्रिया का संचालन चल रहा है उसी प्रकार मानव समाज में उत्प्रेरक मुद्रा की उपस्थिति में मानव के समस्त व्यापार चल रहे हैं।
जिस प्रकार हमारे सभी कर्म-इच्छा का परिणाम/फल रायल्टी के रूप में सार्वभौम आत्मा द्वारा प्रदान किये जा रहे है। उसी प्रकार मानव समाज के वस्तुओं से सम्बन्धित व्यापार में भी उसके साथ किये गये कर्म के भी परिणाम/फल रायल्टी के रूप में प्राप्त होनी चाहिए। मौलिक खोज/आविष्कार के साथ रायल्टी का प्राविधान बढ़ते बौद्धिक विकास के साथ तो है ही परन्तु यदि किसी कम्पनी के उत्पाद का प्रयोग हम करते हैं तो ये उस कम्पनी के साथ किया गया हमारा कर्म भी रायल्टी के श्रेणी में आता है क्योंकि हम ही उस कम्पनी के विकास में योगदान देने वाले हैं। रायल्टी का सीधा सा अर्थ है- हमारे कर्मो का परिणाम/फल हमें मिलना चाहिए। जिस प्रकार ईश्वर हमें जन्म-जन्मान्तर तक परिणाम/फल देता है, उसी प्रकार मनुष्य निर्मित व्यापारिक संस्थान द्वारा भी हमें उसका परिणाम/फल मिलना चाहिए।
वर्तमान समय में स्थिति यह है कि भले ही कच्चा माल (राॅ मैटिरियल) ईश्वर द्वारा दी गई है लेकिन उसके उपयोग का रूप मनुष्य निर्मित ही है और हम उससे किसी भी तरह बच नहीं सकते। जिधर देखो उधर मनुष्य निर्मित उत्पाद से हम घिरे हुए हैं। हमारे जीवन में बहुत सी दैनिक उपयोग की ऐसी वस्तुएँ हैं जिनके उपयोग के बिना हम बच नहीं सकते। बहुत सी ऐसी निर्माता कम्पनी भी है जिनके उत्पाद का उपयोग हम वर्षो से करते आ रहे हैं लेकिन उनका और हमारा सम्बन्ध केवल निर्माता और उपभोक्ता का ही है जबकि हमारी वजह से ही ये कम्पनी लाभ प्राप्त कर आज तक बनी हुयी हैं, और हमें उनके साथ इतना कर्म करने के बावजूद भी हम सब को रायल्टी के रूप में कुछ भी प्राप्त नहीं होता। जबकि स्थायी ग्राहक बनाने के लिए रायल्टी देना कम्पनी के स्थायित्व को सुनिश्चित भी करता है।
जबकि होना यह चाहिए कि कम्पनी द्वारा ग्राहक के खरीद के अलग-अलग लक्ष्य के अनुसार छूट (डिस्काउन्ट) का अलग-अलग निर्धारित प्रतिशत हो। और एक निर्धारित खरीद लक्ष्य को प्राप्त कर लेने के बाद कम्पनी द्वारा उस ग्राहक को पीढ़ी दर पीढ़ी के लिए रायल्टी देनी चाहिए।
और ऐसा नहीं है लेकिन कुछ कम्पनी ऐसी हैं जो ऐसा कर रहीं है और अनेक देशों में उनका व्यापार कम समय में तेजी से बढ़ा हैं, वहीं उनके उत्पाद भी वैश्विक गुण्वत्ता स्तर के भी हैं।
अपने जीवकोपार्जन के लिए शारीरिक गुलामी से चला आर्थिक स्वतन्त्रता का सफर अभी पेंशन तक ही पहुँचा है। जब हम रायल्टी तक पहुँच जायेगें तब हम सभी सत्य आर्थिक स्वतन्त्रता के अन्तिम लक्ष्य को प्राप्त कर लेंगे।
परियोजना रायल्टी में पंजीकरण के लिए अपने ग्राम/नगर वार्ड प्रेरक से सम्पर्क करें या
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