भारतीय शास्त्रों कीे एक वाक्य में शिक्षा
भारतीय शास्त्रों कीे एक वाक्य में शिक्षा
भारतीय शास्त्र, मनुष्य मात्र को ईश्वरत्व तक उठाने के लिए कालानुसार रची जाती रहीं हैं न कि उसकी पूजा करने के लिए। इसलिए उनके उद्देश्यों को समझना आवश्यक है। इन पर आधारित सिनेमा और दूरदर्शन के निर्माण और उसके प्रसारण से आम जनता इनसे परिचित भी हो चुकी है। अब इन शास्त्रों के व्यावहारिकरण के लिए आवश्यक है कि इनके अर्थ को समझा जाये जिससे उसका जीवन में प्रयोग हो सके।
उपरोक्त स्वतन्त्रता के मूल/जड़ सिंद्धान्त होने के बावजूद मनुष्य के जीवन की दो आवश्यकताएँ, आवश्यक हो गयी हैं जिसका निर्माण वे स्वयं किये हैं। पहला - किसी राजनितिक दल का सदस्य होना और दूसरा किसी गुरू का चेला बनना। और इस प्रकृति से यह स्पष्ट भी हो चुका है कि ये दोनों आवश्यकता इनके परम लक्ष्य और स्वतन्त्रता की आवश्यकता के लिए नहीं बल्कि इनके जीवन के संसाधन के स्वार्थ पूर्ति की आवश्यकता है। इस छोटे से लक्ष्य के लिए उनकी कितनी शारीरिक-आर्थिक-मानसिक बलि चढ़ती है ये तो वही जानें परन्तु बड़े लक्ष्य और पूर्ण स्वतन्त्रता के मार्ग पर ले जाने के लिए ही यह भाग लिखा जा रहा है।
वेद की शिक्षा
वेदों को मूलतः सार्वभौम ज्ञान का शास्त्र समझना चाहिए। जिनका मूल उद्देश्य यह बताना था कि ”एक ही सार्वभौम आत्मा के सभी प्रकाश हैं अर्थात बहुरूप में प्रकाशित एक ही सत्ता है। इस प्रकार हम सभी एक ही कुटुम्ब के सदस्य है।“
उपनिषद् कीे शिक्षा
उपनिषद्ों की शिक्षा उस सार्वभौम आत्मा के नाम के अर्थ की व्याख्या के माध्यम से उस सार्वभौम आत्मा को समझाना है।
पुराण कीे शिक्षा
जब उस सार्वभौम आत्मा का ही सब प्रकाश है, तब यह ब्रह्माण्ड ही ईश्वर का दृश्य रूप है। इसलिए पुराण की रचना कई चरणों में हुयी और प्रत्येक चरण की अलग-अलग शिक्षा है।
प्रथम चरण - इस चरण में पुराण की शिक्षा मूलतः उस सार्वभौम एक आत्मा से ब्रह्माण्ड के विकास को कथा के माध्यम से समझाया गया है।
द्वितीय चरण - इस चरण में पुराण की शिक्षा मूलतः उस सार्वभौम एक आत्मा से सौर मण्डल के विकास को कथा के माध्यम से समझाया गया है।
तृतीय चरण - इस चरण में पुराण की शिक्षा मूलतः उस सार्वभौम एक आत्मा से प्रकृति के विकास को कथा के माध्यम से समझाया गया है।
चतुर्थ चरण - इस चरण में पुराण की शिक्षा मूलतः उस सार्वभौम एक आत्मा से जीवों के विकास को कथा के माध्यम से समझाया गया है।
पंचम चरण - इस चरण में पुराण की शिक्षा मूलतः उस सार्वभौम एक आत्मा से मनुष्य के विकास को कथा के माध्यम से साथ ही मनुष्य को व्यक्तिगत, सामाजिक और वैश्विक मनुष्य तक उठने के उन गुणों को समझाया गया है। जो इस प्रकार हैं-
वैश्विक/ब्रह्माण्डिय (मानक वैश्विक चरित्र) मनुष्य के लिए - एकात्म ज्ञान, एकात्म वाणी, एकात्म कर्म, एकात्म प्रेम, एकात्म सर्मपण और एकात्म ध्यान से युक्त जीवन और वस्त्राभूषण का प्रक्षेपण शिव-शंकर परिवार।
सामाजिक (मानक सामाजिक चरित्र) मनुष्य के लिए - एकात्म ज्ञान, एकात्म वाणी, एकात्म कर्म, एकात्म प्रेम से युक्त जीवन और वस्त्राभूषण का प्रक्षेपण विष्णु परिवार।
व्यक्तिगत (मानक व्यक्ति चरित्र) मनुष्य के लिए - एकात्म ज्ञान, एकात्म वाणी से युक्त जीवन और वस्त्राभूषण का प्रक्षेपण ब्रह्मा परिवार।
रामयाण की शिक्षा
रामायण की शिक्षा आपसी सम्बन्धों में एक-दूसरे को महान बताते हुये परिस्थितियों के अनुसार कर्म करने की शिक्षा दी गयी है जिससे अन्य सभी लोग स्वयं ही अपने लोगों को महान समझने लगते हैं।
महाभारत कीे शिक्षा
महाभारत की शिक्षा अपनी प्रकृति में स्थित रहकर व्यक्तिगत प्रमाणित स्वार्थ (लक्ष्य) को प्राप्त करने के अनुसार सम्बन्धों का आधार बनाने की शिक्षा है।
गीता कीे शिक्षा
गीता की मूल शिक्षा प्रकृति में व्याप्त मूल तीन सत्व, रज और तम गुण के आधार पर व्यक्त विषयों जिसमें मनुष्य भी शामिल है, की पहचान करने की शिक्षा दी गयी है और उससे मुक्त रहकर कर्म करने को निष्काम कर्मयोग तथा उसमें स्थित रहने को स्थितप्रज्ञ और ईश्वर से साक्षात्कार करने का मार्ग समझाया गया।
विश्वभारत कीे शिक्षा
विश्वभारत, विश्वशास्त्र के स्थापना की योजना का शास्त्र है, जो विश्वशास्त्र का ही एक भाग है। विश्वभारत, की शिक्षा अपनी प्रकृति में स्थित रहकर सार्वजनिक प्रमाणित स्वार्थ (लक्ष्य) को प्राप्त करने के अनुसार सम्बन्धों का आधार बनाने की शिक्षा है।
विश्वशास्त्र-द नाॅलेज आॅफ फाइनल नाॅलेज की शिक्षा
विश्वशास्त्र की शिक्षा, उपरोक्त सभी को समझाना है और पूर्ण सार्वजनिक प्रमाणित ज्ञान-कर्मज्ञान से युक्त होकर कर्म करने की शिक्षा है। जिससे भारतीय शास्त्रों की वैश्विक स्वीकारीता स्थापित हो और देवी-देवताओं के उत्पत्ति के उद्देश्य से भटक गये मनुष्य को शास्त्रों के मूल उद्देश्य की मुख्यधारा में लाया जा सके।
”हिन्दू भावों को अंग्रेजी में व्यक्त करना, फिर शुष्क दर्शन, जटिल पौराणिक कथाएं और अनूठे आश्चर्यजनक मनोविज्ञान से ऐसे धर्म का निर्माण करना, जो सरल, सहज और लोकप्रिय हो और उसके साथ ही उन्नत मस्तिष्क वालों को संतुष्ट कर सके- इस कार्य की कठिनाइयों को वे ही समझ सकते हैं, जिन्होंने इसके लिए प्रयत्न किया हो। अद्वैत के गुढ़ सिद्धान्त में नित्य प्रति के जीवन के लिए कविता का रस और जीवन दायिनी शक्ति उत्पन्न करनी है। अत्यन्त उलझी हुई पौराणिक कथाओं में से जीवन प्रकृत चरित्रों के उदाहरण समूह निकालने हैं और बुद्धि को भ्रम में डालने वाली योग विद्या से अत्यन्त वैज्ञानिक और क्रियात्मक मनोविज्ञान का विकास करना है और इन सब को एक ऐसे रुप में लाना पड़ेगा कि बच्चा-बच्चा इसे समझ सके।“ - स्वामी विवेकानन्द
”अब व्यावहारिक जीवन में उसके प्रयोग का समय आया है। अब और ‘रहस्य’ बनाये रखने से नहीं चलेगा। अब और वह हिमालय की गुहाओ। में, वन-अरण्यांे में साधु-सन्यासियों के पास न रहेगा, लोगों के दैनन्दिन जीवन में उसको कार्यन्वित करना होगा। राजा के महल में, साधु-सन्यासी की गुफा में, मजदूर की झोपड़ी में, सर्वत्र सब अवस्थाओं में- यहाॅ तक कि राह के भिखारी द्वारा भी - वह कार्य में लाया जा सकता है।“ - स्वामी विवेकानन्द
”सूक्ष्म परमाणु से बृहद् ब्रह्माण्ड तक सभी स्वयं अपनी स्थिरता, शान्ति और एकता के लिए क्रियाशील है। मैं (सार्वभौम आत्मा) भी अपनी स्थिरता, शान्ति और एकता के लिए क्रियाशील हूँ अर्थात सभी अपने धर्म में बद्ध होकर स्वयं या केन्द्र या CENTRE की ओर ही व्यापार या आदान-प्रदान या TRADE कर रहे है। प्रत्येक वस्तु के धर्म या क्रिया या व्यापार या अदान-प्रदान या TRADE का एक चक्र है। सभी के मन स्तर चक्र अर्थात धर्म का चरम विकसित और अन्तिम चक्र मैं (सार्वभौम आत्मा) है। तुम सब इस ओर ही आ रहे हो बस तुम्हें उसका ज्ञान नहीं, उसका ज्ञान होगा कार्यो से क्योंकि कर्म, ज्ञान का ही दृश्य रूप है। एक ही देश काल मुक्त अदृश्य ज्ञान है- आत्मा और एक ही देश काल मुक्त दृश्य कर्म है- आदान-प्रदान।” -लव कुश सिंह ”विश्वमानव“
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