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राहुल गांधी तो वही हैं

by Yathavat Magazine Online Hindi Magazine

राहुल गांधी तीर्थ यात्रा पर चल पड़े हैं। पांव-पांव चलकर पहाड़ पहुंचे। खबरें छपी हैं- वे ग्यारहवें ज्योतिर्लिंग केदारनाथ धाम के कपाट खुलने पर पहले तीर्थ यात्री बने। वहां पूजा-अर्चना की।

वे लिनचोली से पांच किलोमीटर चलकर केदारनाथ पहुंचे थे। गौरीकुंड से केदारनाथ की यात्रा पैदल की। जो लोग उन्हें हवाई मानते हैं, वे चकित होंगे। हेलीकॉप्टर से जा सकते थे, पैदल पहुंचे। है न चौंकाने वाली बात!

राहुल गांधी हों और मीडिया उनसे मुखातिब न हो, ऐसा हो ही नहीं सकता। वहां भी मीडिया थी। मंदिर से निकलते ही सवाल था कि क्या मांगा? राहुल गांधी बोले- ‘मैंने बाबा केदार से कुछ नहीं मांगा। सुरक्षित यात्रा का संदेश देना मेरा मकसद था।’ मेरा कहना है, मांग लेते तो वह मिल जाता, जो उन्हें चाहिए। नकारात्मकता गिर जाती।

पहली नजर में राहुल गांधी टूरिस्ट गाइड लगते हैं। पर्यटन की भाषा में वे उत्तराखंड के मुख्यमंत्री हरीश रावत के ब्रांड प्रचारक माने जा सकते हैं। हरीश रावत ने वहां कहा भी कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का भी चार धाम यात्रा पर स्वागत है। एक मुख्यमंत्री को यह सब करने की क्या जरूरत है? राजनीति जो न करा दे।

मंदिर से निकलते ही राहुल गांधी ने जो कहा उसे हेलीपैड पर बदल दिया। पैदल पहुंचने का मकसद इतनी जल्दी बदल सकता है? पहुंचे पैदल। लौटे हेलीकॉप्टर से। उस पर सवार होने से पहले बोले- ‘त्रासदी में मारे गए लोगों को सम्मान देने के लिए मैंने पैदल यात्रा की।’ बता दूं, जून 2013 में वहां हादसा हुआ था।

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राहुल गांधी की केदारनाथ यात्रा एक संकेत है। उसकी अगली कड़ी का इंतजार करिए। बहुत संभव है, जल्दी ही वह अमरनाथ की यात्रा होगी। इसी अर्थ में केदारनाथ की यात्रा को राजनीतिक संकेत मान सकते हैं। सवाल यह है कि राहुल गांधी की इस यात्रा से कांग्रेस बदलेगी? अगर बदलेगी तो उसका स्वरूप क्या होगा?

राहुल गांधी की केदारनाथ यात्रा एक संकेत है। उसकी अगली कड़ी का इंतजार करिए। बहुत संभव है, जल्दी ही वह अमरनाथ की यात्रा होगी। इसी अर्थ में केदारनाथ की यात्रा को राजनीतिक संकेत मान सकते हैं। सवाल यह है कि राहुल गांधी की इस यात्रा से कांग्रेस बदलेगी? अगर बदलेगी तो उसका स्वरूप क्या होगा? इसका संबंध इस बात से तो बिल्कुल नहीं है कि कांग्रेस का अध्यक्ष पद उनको मिलता है या नहीं। वह तो तय है। उससे पहले की दिख रही ये बातें क्या संदेश देती हैं? उनकी यात्रा से कांग्रेस में अगर सेकुलरिज्म की परिभाषा पर कोई नई बहस छिड़ती है तो बदलाव का संकेत बहुत साफ हो जाएगा। देखना यह है कि वह बहस छिड़ती है या नहीं। न छिड़ने पर कांग्रेस भाजपा की पिछलग्गू होगी।

कांग्रेस में सेकुलरिज्म पर सिर्फ एक बार बहस हुई है। उसके बाद कभी बहस नहीं हुई। अवश्य एक नजरिया कांग्रेस पार्टी का बन गया और वही सेकुलरिज्म की मान्य परिभाषा बन गई। पहले यह जानें कि वह बहस कब हुई थी। भारत विभाजन के बाद सन् 1950 तक वह बहस कांग्रेस में चली। एक तरफ पुरुषोत्तम दास टंडन थे तो दूसरी तरफ जवाहरलाल नेहरू। पुरुषोत्तम दास टंडन को राजर्षि की उपाधि से देश ने विभूषित किया। पर नेहरू ने उन्हें सांप्रदायिक माना।

जब कांग्रेस के अध्यक्ष पुरुषोत्तम दास टंडन सांप्रदायिक करार कर दिए गए, तब जो सेकुलरिज्म मान्य हुआ वही कमोबेश चल रहा है। अयोध्या आंदोलन ने उस पर गहरा सवाल खड़ा कर देश की राजनीति को बदल दिया। जवाहरलाल नेहरू ने अपने पूरे जीवन में सिर्फ एक बार माना कि मैं हिन्दू हूं। अवसर था, जब वे अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में भारत विभाजन के बाद बोल रहे थे।

अगर जवाहरलाल नेहरू होते तो वे राहुल गांधी की यात्रा पर सवाल खड़ा करते। इसलिए यह जानने की उत्सुकता बनी रहेगी कि 2015 में कांग्रेस का आदर्श कौन है? जवाहरलाल नेहरू या पुरुषोत्तम दास टंडन? इस बहस में कभी सरदार पटेल नहीं पड़े। इसका कारण बहुत साफ है कि वे बहस से ज्यादा फैसला करने और उसे जीवन में उतारने में विश्वास करते थे। कांग्रेस में अगर बहस नहीं छिड़ती है तो इसका अर्थ बिल्कुल अलग होगा। उसे भी समझ लेना चाहिए। उसका निष्कर्ष एक ही है कि यह कांग्रेस नेहरू की विरासत में नहीं है, उसमें बहस होती थी। यह तो इंदिरा गांधी की विरासत वाली कांग्रेस है जो बहस नहीं, टोटके की राजनीति से संचालित होती थी। राहुल की कांग्रेस भी टोटके से चलेगी, विचारों से नहीं।

पिछले दिनों दिग्विजय सिंह का एक बयान आया। उसमें उन्होंने कहा कि मेरे जैसे लोगों को राजनीति से संन्यास लेने का वक्त आ गया है। संभव है, उन्होंने ही राहुल गांधी को तीर्थ यात्रा की राजनीति पर चलने की सलाह दी हो। यह सलाह ऐसी है जिसे न तो दिग्विजय सिंह स्वीकार करेंगे और न राहुल गांधी। एक इंटरव्यू में दिग्विजय सिंह कहते हैं कि ‘मुझे राहुल गांधी का मेंटर और सलाहकार कहा जाता है। लेकिन उनको इसकी जरूरत नहीं है। उनके पास एक राजनीतिक दिमाग है।’

यह कथन सच नहीं है। कम से कम राहुल गांधी के बारे में जो बनी हुई धारणा है, उसकी इसमें पुष्टि नहीं होती। यह तो उनकी नई छवि बनाने का एक बार फिर विफल प्रयास है। इसी तरह दिग्विजय सिंह ने कांग्रेस के भविष्य के बारे में बयान दिया है। उसमें वे कहते हैं कि कांग्रेस की पहचान एक ऐसी पार्टी के रूप में है जिसे वाम की तरफ झुका हुआ माना जाता है। कांग्रेस सेकुलर है और सोशलिस्ट है। राहुल गांधी की यात्रा क्या कांग्रेस की पहचान के अनुरूप है? यह सवाल दिग्विजय सिंह के लिए बहुत अटपटा होगा।

पत्रकार वेदप्रताप वैदिक ने अपने कॉलम में कुछ और लिखा है। शीर्षक है- बम-बम भोले: राहुल बाबा। वे लिखते हैं कि राहुल गांधी को इस उम्र में भी क्या सूझी? केदारनाथ की यात्रा! यह उनके खेलने खाने की उम्र है या केदार बद्री जाने की? आखिर में वैदिक ने सही सवाल उठा दिया है। उसे पढ़ें- ‘कुछ खास टीवी चैनल खुद बम-बम हो गए हैं। उनके पास बम-बम भोले को दिखाने के अलावा कुछ है नहीं। बेचारे कांग्रेसी मौन भाव से यह ‘अमृत पान’ कर रहे हैं। उनका सेकुलरिज्म अंदर ही अंदर खदबदा रहा है। भगवा वस्त्रधारी साधु के हाथों तिलक लगवाकर हमारे भोले भंडारी राहुलजी क्या संघियों पर मोहिनी डालने की कोशिश कर रहे हैं? 56 दिन की साधना, पता नहीं, क्या-क्या रंग दिखाएगी?’

राहुल गांधी की मूल समस्या क्या है? वे नरेन्द्र मोदी जैसा दिखना और दिखाना चाहते हैं। जहां नरेन्द्र मोदी पहले दिन से यह बात लोगों के मन में बैठा देने में सफल रहे कि वे अपने अनुभव और फैसले से चलते हैं, वहीं राहुल गांधी के बारे में लगभग 10 साल से एक धारणा बनी हुई है और वह उनसे ऐसी चिपक गई है कि छूटने का नाम नहीं लेती। वह यह है कि राहुल गांधी को कोई और चलाता है।

कौन चलाता है? इसके कई दावेदार हैं। मीडिया ने तो अपनी अटकल और चुहलबाजी से सलाहकारों की ऐसी फौज बना दी है जैसी नरेन्द्र मोदी के पास मीडिया की नई टेक्नॉलोजी संभालने वालों की मानी जाती है। फर्क यह है कि नरेन्द्र मोदी की फौज सिपाहियों की है। वे उसके सेनापति हैं। दूसरी तरफ राहुल गांधी की फौज में हर कोई सेनापति है। सिपाही तो सिर्फ राहुल गांधी हैं।

यह ऐसी समस्या है जो राहुल गांधी पर प्रश्नचिन्ह खड़ी करती है। उनके नेता होने के दावे पर अविश्वास पैदा करती है। इस कारण उनके बारे में तमाम तरह की चर्चाएं चलती रहती हैं। वे उनके रहन-सहन, व्यवहार और व्यक्तित्व पर तो होती ही हैं, इसके अलावा ऐसी कई बातें हैं जो चर्चा में रहती हैं। अक्सर देखा यह गया है कि कोई व्यक्ति जैसा है, उससे अधिक वह चर्चा में रहता है। जिन बातों की चर्चा होती है वह मीडिया से गायब होता है। लोगों में लोक-कथा की तरह वे बातें चलती रहती हैं। उनसे ही उस व्यक्ति का आंकलन लोग करते हैं। यही राहुल गांधी पर भी लागू होता है। कांग्रेस की बुरी पराजय उतना बड़ा मुद्दा नहीं है, जितना यह कि राहुल गांधी के नेतृत्व में उसका भविष्य क्या है?

यह सवाल हर किसी के जबान पर है। उतना ही हर किसी के अंतर्मन में भी है। कारण एक ही है। राहुल गांधी यह भरोसा पैदा नहीं कर पाए हैं कि उनमें नेतृत्व की क्षमता है। नेतृत्व का आधार मूलत: नैतिकता होती है। बिना उसके कोई नेता संकटकालीन परिस्थिति में नाव को पार नहीं लगा पाता। डूबा जरूर देता है।

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कांग्रेस में अगर कोई बहस नहीं छिड़ती है तो इसका अर्थ बिल्कुल अलग होगा। उसका निष्कर्ष एक ही है कि यह कांग्रेस नेहरू की विरासत में नहीं है, जिसमें बहस होती थी। यह तो इंदिरा गांधी की विरासत वाली कांग्रेस है, जो बहस नहीं, टोटके की राजनीति से संचालित होती थी। राहुल की कांग्रेस भी टोटके से चलेगी, विचारों से नहीं।

 

प्रकृति का एक नियम है। वह राजनीति में भी घटित होता है। वह नियम यह है कि इस दुनिया में जिसे हम बहुत महत्वपूर्ण मानते हैं वह बिना शोर-शराबे के होता है। चुपचाप घटित होता है। राहुल गांधी ठीक इसके विपरीत होने का आभास देते हैं। वे चुपचाप जहां जाते हैं, वह अज्ञात होता है। महत्वपूर्ण नहीं होता। अज्ञात से आशंका पैदा होती है। राजनीति में उससे अफवाहों की आंधी चलती है।

यही उस समय हुआ, जब राहुल गांधी संसद का बजट अधिवेशन छोड़कर अज्ञातवास में चले गए। उस दौरान मीडिया ने उनकी बहुत मलामत की। हजामत बनाई। कोई नहीं जानता कि वे लगभग दो महीने कहां थे। इतना ही पता चला है कि वे जिस जहाज से पालम उतरे, वह बैंकाक से उड़ा था। कोई कहता है कि वे विपश्यना सीख रहे थे। जब सारी दुनिया ध्यान और योग के लिए भारत के केंद्रों पर आ रही है, तब राहुल गांधी इसके लिए विदेश जा रहे हों, तो यह बात समझ से परे है।

इससे ही उन पर सवाल खड़ा होता है। फिर अटकलें लगाई जाती हैं। उनके नजदीकी इस बात का दावा करते हैं कि वे कहां-कहां थे। एक सूचना यह है कि वे विपश्यना नहीं, नागालैंड के एक चर्च में भाषण कला सीख रहे थे। जिनका यह दावा है वे प्रमाण के तौर पर राहुल गांधी के उन भाषणों का हवाला दे रहे हैं जो उन्होंने रामलीला मैदान और लोकसभा में दिए। कहा जा रहा है कि उनके भाषण में पहले से सुधार हुआ है। क्या यह ऐसा लक्षण है जो राहुल गांधी पर छाई हुई आशंकाओं की बदरी को उड़ा देने की सूचना देती है? कहना कठिन है। उतना ही, जितना राहुल गांधी का उलझा हुआ आचरण है। परिस्थितियों की तुलना में ज्यादा उलझा हुआ।

क्या राहुल गांधी अपनी छवि से बाहर निकल सकेंगे? जो छवि बनी है, उसके लिए दूसरा कोई जिम्मेदार नहीं है, वे खुद हैं। इसलिए उन्हें ही इसका मार्ग ढूंढ़ना होगा, बशर्ते वे उससे बाहर आना चाहते हैं। इसके लिए उन्हें लापता होने की अपनी आदत बदलनी होगी। अक्सर लापता हो जाने के वे आदती हो गए हैं। जब कोई चुनौती सामने होती है, तो वे कतरा जाते हैं। लापता हो जाते हैं।

यही वह चुनौती है जो राहुल गांधी को पार करनी है। परिवार, मां सोनिया गांधी और बहन प्रियंका गांधी उनकी मदद कर सकती हैं, पर उन्हें बदल नहीं सकती। बदलना तो खुद होगा। उनमें यह क्षमता न पाकर ही कांग्रेस इस समय दो हिस्से में बंटी हुई दिखती है। एक तरफ शीला दीक्षित की तरह सोचने और मानने वाले नेताओं का भारी जमघट है, जो राहुल गांधी के हाथ में कांग्रेस की कमान देने पर एतराज कर रहे हैं। दूसरी तरफ वे लोग हैं जो राहुल गांधी को कांग्रेस का अध्यक्ष बनवाना चाहते हैं। यही लोग आखिकार सफल होंगे। उससे कांग्रेस में पीढ़ी का परिवर्तन भले हो जाए, पर पटपरिवर्तन कठिन है।

सवाल कांग्रेस का कम है, राहुल गांधी का ज्यादा है। क्या राहुल गांधी अपने को बदलने में उत्सुक हैं? दिखता तो यह है कि जो भी राजनीति में व्यर्थ का है, कूड़ा-कचरा है, उसे राहुल गांधी ढोने में उत्सुक नजर आ रहे हैं। खेल का नियम उनकी समझ से इसी वजह से दूर हो जाता है। वे उस लहर को नहीं पकड़ पाते, जो झाग का कारण होती है। वे राजनीति के सागर में उठने वाली लहरों के झाग से खेलने के आदी हो गए हैं। इसलिए अनुभव हर बार होता है कि राहुल गांधी का मौलिक स्वर वही है जो 2006 में था। जब वे राजनीति में उतरे थे।

राहुल गांधी अक्सर लापता हो जाने के वे आदती हो गए हैं। जब कोई चुनौती सामने होती है, तो वे कतरा जाते हैं। लापता हो जाते हैं। यही वह चुनौती है जो राहुल गांधी को पार करनी है। परिवार, मां सोनिया गांधी और बहन प्रियंका गांधी उनकी मदद कर सकती हैं, पर उन्हें बदल नहीं सकती। बदलना तो खुद होगा। उनमें यह क्षमता न पाकर ही कांग्रेस इस समय दो हिस्से में बंटी हुई दिखती है।
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