कोरोना महामारी और दो हिस्सों में बंटा समाज
by Tanvi Katyal Molitics - Media of Politicsहम सब महामारी के दौर से गुजर रहे है। लेकिन हमारे सामने इसके अलावा भी कई चुनौतियां और सवाल हैं। मसलन -
महामारी के बाद क्या होगा?
जो लोग बच जायेंगे उनका भविष्य कैसा होगा?
उनकी स्थिति कैसे होगी?
इस महामारी ने अर्थव्यवस्था को चौपट करने के साथ ही दो हिस्सों में बँटे समाज को स्पष्ट रेखांकित किया है.
एक तरफ वो लोग है जिनके पास अपार संपत्ति है तो दूसरी तरफ वो हैं, जो एक-एक दाने को मोहताज है.
एक तरफ पूँजीपतिओं की बड़ी डील है तो दूसरी तरफ पलायन को मजबूर मजदूरों की व्यथा।
इस महामारी के बीच भी पूँजीपतियों की सत्ता वैसी की वैसी कायम है. इस महामारी से लड़ने के क्या उपाय है हमारे पास?
अर्थव्यस्था लगभग चौपट होने की कगार पर है। घनी आबादी वाले देश भारत के लिए भुखमरी पहले से एक बडी समस्या रही है. महामारी ने इस समस्या को दोगुना कर दिया हैं। जितने भी मजदूर है उनका काम ठप्प हो जाने के बाद उनके पास दो वक़्त की रोटी नहीं है। उन्हें खाना खिलाने के लिए तरह तरह की सरकारी योजनाओ का ऐलान हो रहा है लेकिन क्या वाकई ये सब हो रहा है. इसका जवाब तो इस लॉकडाउन के अंत में पता चलेगा। लेकिन क्या देश के नागरिक अपनी सरकार से जारी सवाल पूछेंगे?
इस महामारी में कितना पैसा कहा लगाया जा रहा है और क्या जरुरतमंद लोगों तक मदद पहुंच रही है?
द हिन्दू का एक सर्वे बताता है कि सरकारी योजनाएँ कितना असरदार रहीं हैं. द हिन्दू ने अप्रैल 8 से अप्रैल 13 के बीच 11,159 प्रवासिओं का सर्वे किया जिसमे पता चला कि 90 प्रतिशत लोगों तक सरकारी राशन नहीं पहुंच रहा है. इसके अलावा 27 मार्च और 13 अप्रैल के बीच मजदूरों का सर्वे किया गया था उनके पास केवल 200 रूपए की धनराशि ही बची थी. इस सबसे मालूम ये भी चलता है कि आधी जनता के पास इस लॉकडाउन के बाद रहने को छत, खाने को भोजन और पहनने को क्या कपडा बचेगा? ये सब बुनियादी जरूरतें भी क्या बचेंगी?
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जब देश का एक हिस्सा छत पर खड़े होकर थाली और चम्मच बजाता है तो दूसरी और प्रवासी मजदूर दो वक़्त की रोटी के लिए सरकार की तरफ देखने की ओर मजबूर है. विश्व बैंक ने भी कहा है की ये लॉकडाउन लगभग 4 करोड़ प्रवासी मजदूरों की जिंदगियों को प्रभावित करेगा. नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री अभिजीत बनर्जी का भी मानना है कि केंद्र सरकार ने गरीब मजदूरों के लिए उतना नहीं किया जितना उसे करना चाहिए था. लॉकडाउन की घोषणा करने से पहले उन्हें अथि गरीब वर्ग और प्रवासी मज़दूरों के खाने व रहने की व्यवस्था सुनिश्चित करनी चाहिए थी।
ग्लोबल हंगर इंडेक्स के मुताबिक भारत 117 देशों की सूचि मे 102 नंबर पर हैं. इस महामारी और लॉकडाउन ने भारत में भुखमरी के खतरे को और बढ़ा दिया है. दिहाड़ी मजदूर, कॉन्ट्रैक्ट वर्कर्स और प्रवासी मजदूरों पर एक बड़ा असर डाला है. इनके पास न तो घर जाने के रास्ते बचे न ही जहाँ हैं वहाँ रहने की सुविधा रही। भारत डिजिटल हो गया है लेकिन भूख के लिए अभी भी कोई टेक्नोलॉजी का आविष्कार नहीं हुआ है।
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जाने- माने लेखक डॉ युवाल नोआ हरारी बताते हैं कि कैसे इस महामारी से लड़ने में हमे एकजुटता दिखानी चाहिए थी लेकिन हम पूरी तरह से असफल साबित हुए है. हमने इस वायरस को भी धर्म, सम्प्रदाय और जाति से जोड़ दिया। उनका कहना ये भी है की इंसानियत हर वायरस का इलाज ढूंढने में सक्षम है लेकिन अपने अंदर के वायरस का इलाज ढूंढने में असफल रही है। देश एक दूसरे पर प्रतिबन्ध लगा रहे हैं, लोगों पर जातीय व नस्लीय टिप्पणियाँ की जा रही हैं और ये सब डरा देने वाला है. युवाल नोआ हरारी का ये भी कहना है की हमे इस महामारी को एक साथ मिलकर ही लड़ना होगा लेकिन आगे आने वाले खतरों के लिए भी चौकन्ना रहना होगा.
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Created on May 1st 2020 06:45. Viewed 220 times.